- एक छोटे से गाँव में एक प्रसिद्ध मूर्तिकार रहता था, जो अपनी सुंदर मूर्तियों के लिए जाना जाता था। उसकी कला इतनी उत्कृष्ट थी कि दूर-दूर से लोग उसकी मूर्तियाँ खरीदने आते थे। उसका एक बेटा था, जिसने बचपन से ही अपने पिता की कला में रुचि दिखाई और मूर्तिकला सीखने लगा।
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- समय के साथ, बेटे ने भी सुंदर मूर्तियाँ बनानी शुरू कीं। पिता हर बार उसकी मूर्तियों में कुछ न कुछ कमी निकालते और उसे सुधार करने की सलाह देते। बेटा बिना किसी शिकायत के पिता की सलाह मानता और अपनी कला में सुधार करता रहा। इस निरंतर सुधार के परिणामस्वरूप, उसकी मूर्तियाँ और भी उत्कृष्ट होने लगीं, यहाँ तक कि लोग उसकी मूर्तियों के लिए अधिक मूल्य चुकाने लगे।
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- एक दिन, बेटे ने महसूस किया कि उसकी मूर्तियाँ अब पूर्ण हैं और उनमें कोई कमी नहीं है। उसने सोचा कि अब उसे अपने पिता की सलाह की आवश्यकता नहीं है। जब पिता ने अगली बार उसकी मूर्तियों में कमी निकाली, तो बेटे ने कहा, "पिताजी, मेरी मूर्तियाँ अब पूर्ण हैं। मुझे आपकी सलाह की आवश्यकता नहीं है।" पर कुछ दिनों बाद ही उसकी मूर्तियों की बिक्री गिर गई।
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- तब एक दिन पिता ने मुस्कुराते हुए कहा, "बेटा, पूर्णता एक भ्रम है। हमेशा सुधार की गुंजाइश रहती है। जब तुमने मेरी सलाह मानकर अपनी कला में सुधार किया, तो तुमने उत्कृष्टता प्राप्त की। लेकिन जब तुमने सोचा कि अब सुधार की आवश्यकता नहीं है, तो तुमने अपनी प्रगति रोक दी। निरंतर सुधार ही सफलता की कुंजी है।"
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- इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा स्वयं में सुधार की संभावना को स्वीकार करना चाहिए और निरंतर प्रयासरत रहना चाहिए। पूर्णता की खोज में निरंतर सुधार ही हमें उत्कृष्टता की ओर ले जाता है।
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- Moral: निरंतर सुधार की भावना हमें सफलता की ऊँचाइयों तक पहुँचाती है।