मेरा शहर मेरा गॉव। …………………………………..
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- Mediavarta Desk
- October 24, 2019
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शहर में एक फायदा तो है , वह कुदरत के खेल से बेखबर , अपनी दुनिया मे उलझा रहता है । गांव में यह दिक्कत है । चैत की तरह कातिक की भी सांझ बहुत उदास होती है । मन कहीं लगता नही , खालीपन का सुराग भी नही मिलता , ठीक उस बच्चे की तरह जो किसी चीज के व्याकुल तो है पर उसे यह नही मालूम कि उसकी चाह क्या है, चुनांचे वह मुतवातिर रोता रहेगा । शहर ने बच्चे की बीमारी तो पकड़ ली कि यह विकास की तरफ जा रहा है , इसकी हड्डियां बढ़ रही हैं इसे कार्बोहाइड्रेड चाहिए , इसके मुह में चीनी डाल दो चुप हो जाएगा ।
प्रौढ़ , मुग्धा और वयस्क को क्या चाहिए जो कातिक में उदास हो जाते हैं बेवजह ? ऐसी ही एक सांझ कल की थी । निकल पड़ा निरुद्देश्य , सड़क से नही पगडंडी खोज ली जो अब कई जगह से मिट चुकी है ।
इस डगर से कांख में बस्ता दबाये सालो साल चले हैं । सुबह मदरसे पहुचना , होत सांझ घर वापसी । शरारतों के जंगल मे भला कौन याद करता किसे आज बाबू साहब ने छड़ी से मारा ,और किसे तड़कू पंडित ने कान पकड़ के जोख लिया ? छुट्टी के बाद मदरसा और घर के बीच भूतहिया बाग के खड़ा बेल का पेड़ हर रोज मुस्कुराता – धुंधा बाबा रात में आते हैं , सिरोमनि के माई के गीत रमदेइया अपने कान से सुने बा , विद्दा कसम उ झूठ काहे बोले ? लममरदार खुद मुरहा है किस्सा गढ़ा की रामदिया लोचन उपाधियां के चक्कर मे रात में आई रहे । ये किस्से उन पगडंडियों पर जरूर होंगे यही खोजने चला था उस डगर से । सब मिट गया है । भूतहिया बाग में झाबू दुबे का पक्का मकान है , बेल गायब है । बगल में धान के खेत का विस्तार है ।
मन किया बैठ लो । खेत का मेड़ गीला है , तो क्या हुआ । सूखे डगर की चाह होती तो पिच रोड से न निकल जाता । इसी मेड़ पर तो चुन्नी और उसकी कुस्ती हुई थी । दोंनो गिरे थे छपाक से पानी मे । यहां चोट कम लगी थी , घर पे ज्यादा – एकै कमीज , मुहझौंसा उहौ फाड़ि के आय बा , कल का पहिन के जाबे ? इतनी पुरानी बात हो गई ,उसे क्या याद है , क्या पहन के गया था या दादी ने सुई से तुरपई करके सील दिया था । इस किस्से को मिटा कर धान के खेत से मुखातिब हुआ – हरी गंध , धान की खुशबू में डूब गया – रंग भी गंध रखते हैं , उम्र की गंध , नही सोचेगा गंध पर । धान निहारने लगा कमाल का विधान । धानी परिधान पर सुनहरा गहना । धान की सुनहरी बालियां नवलखा हार की तरह नाभि तक लहरा गई है । ग्यारहवीं सदी में धान आ गया था , चंदेलों के हाथ ? खजुराहो की मूर्तियों ने इन्ही धान की लचकि बालियों से श्रृंगार तो नही उठाया ? दो पल्लू की साड़ी के साथ , सोने का बाजूबन्द , हार , पांव पंक में ।
सीता ने भी तो यही धारण किया था । बाल्मीक कहते हैं सीता हरण के बाद राम जब जंगल जंगल दौड़ते हैं तो उन्हें सीता के गहने मिलते हैं तो वे लक्ष्मण को दिखा कर पूछते है तुम इसे पहचानते हो ? बहुत रोचक प्रसंग है राम को शक है लक्ष्मण पर , लेकिन लक्ष्मण और चतुर सीधे सीधे जवाब देते हैं – ना अहम जानामि केयूरम , ना अहम जानामि कुण्डलम । हे राम ! हमने तो सीता के पैर के अलावा कुछ देखा ही नही तो हम बाजूबन्द और कुंडल को क्या जानू ?
चलना चाहिए । उसकी पगडंडी टूट चुकी है । उस पर कांक्रीट के मकान शुरू हैं उसको इसमे कोई दिलचस्पी नही । लौट पड़ा सांझ गहरा गई है । धान गंध एक विशेष किस्म की देहगंध से मिलती है । वात्सायन से पूछा जाए ।
कमबख्त ! मत्स्यगंधा तो जानते होंगे ?
जब तुम राम को घर देने का दम्भ भरते हो , मत्स्यगंधा हंसती है । कब तुम हरे कृष्ण ,हरे कृष्ण करते हो तो राधा तुम्हे लानत भेजती है । अभी तक वह अपनी ही खोल था , गो कि घर की ऒर उसके पैर खुद ब खुद चल रहे थे लेकिन एक आवाज ने उसे उठा लिया । कोई दूर से गया रहा था –
दिनवा गिनत मोर घिसल रे अंगुरिया
(chanchal bhu )जी की फेसबुक वॉल से