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जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब के बिना उर्दू लफ्ज़ और शायरी बेईमानी लगती है वैसे ही उत्तर प्रदेश में उर्दू सहाफियों में परवेज़ भाई का ज़िक्र न हो तो बात पूरी नही होती। और आज उत्तर प्रदेश के उर्दू सहाफत, कौमी तंज़ीम के बॉस जनाब परवेज आलम साहब की तारीखे पैदाइश है तो सहाफियों का जमावड़ा न हो तो भी बात बनती नही है। थर्मल स्कैनिंग, सैनिटाइजर का इस्तेमाल हुआ तो बातचीत का एक दौर भी शुरु हुआ, सहाफी Abdul Waheed के शानदार मोबाइल कैमरे से तस्वीर न बने ऐसा हो नही सकता और तस्वीर के। लिए मास्क हट तो गया लेकिन कोरोना की तमाम सूरते हाल और ज़िम्मेदारी का पूरा ख़्याल रहा। जनाब Najam Ahasan उर्दू के हालात को देखते हुए अंग्रेज़ीयत हिसाब का केक ले आये, जैसे उर्दू हमारी ज़िंदगी मे बट रही है, तालीम से कट रही उसी अंदाज में परवेज़ भाई ने केक काटकर टुकड़े टुकड़े में हम सबको तक़सीम कर दिया, और बेचारी मीठी ज़ुबान उर्दू का दर्द भी बट गया लेकिन इस दर्द को सहाफी Zubbair Ahmad ने अपने साथ लायी हुई ग़ुलाब की खुशबुओं से महका दिया।

फ़िज़ाओं में खुशबू तो महक गयी लेकिन ज़ख्मी उर्दू पर सियासी तलवार लगातार चल रही है हालांकि उर्दू किसी मज़हब या सियासत की मोहताज़ नही थी लेकिन हालाते दौर ऐसा आया कि इंसान इंसान से कट गया, मज़हब, भाषा के लिबास में बंध गया, और हमारे मुल्क़ में कट गई उर्दू, बट गयी उर्दू। एक दौर इस उत्तर प्रदेश ने वो भी देखा जब लखनऊ के गैरमुस्लिम सहाफियों की उर्दू सहाफत में खिदमात इतनी ज्यादा और अहम थी कि उसको बयान कर पाना मुमकिन नही। लखनऊ से पंडित बिजनाथ और मुंशी नवल किशोर उर्दू अख्बारात की दुनिया में एक बड़ा मुकाम रहा है, वहीं मुक़ाम आज लखनऊ में परवेज़ भाई ने उर्दू अख्बारात में हासिल किया है।

परवेज़ भाई की तारीफ में क्या कहा जाए, पत्रकार जैसी कोई खासियत तो है नही, न रुआब, न अंदाज़, न शाम का शौक और न ही जाम का साथ, उनका अंदाज़, उनके अल्फ़ाज़ जितने रुआबदार है उतनी ही मासूमियत है उनके अंदर, मोहब्बत और सलाहियत से लबरेज़ है उनका व्यक्तित्व, जिस तरह उर्दू सहाफत इस दौर में काम कर रही है उसके मद्देनज़र उर्दू सहाफत को बचाने की पूरी कोशिश में लगे है परवेज़ भाई, सरकारों के लगातार नज़रंदाज़ किये जा रहे रवैय्ये से उर्दू अखबारों की तादात अब बहुत कम हो गई है। उर्दू अखबारों का इंफ्रास्ट्रक्चर बहुत कमजोर है, इन हालात में उर्दू सहाफत की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और अखबारों को अपने वजूद के लिए हिंदी ज़ुबानी अख्बारात के बीच अपनी जगह भी बनानी है और अपने साथ काम कर रहे पत्रकार साथियों के लिए बचाव भी करना है, परवेज़ भाई ने बिहार से आकर चंद सालों में प्रदेश में उर्दू सहाफत को एक बड़ा नाम तो दिया साथ ही सभी पत्रकार साथीयों के दिल मे अपना नाम भी दर्ज कराया है। आज के इस दौर के ऐसे उर्दू के बॉस को यौमे पैदाइश की बहुत बहुत मुबारकां ।
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