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Arun Tiwari

हाल में जब यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी के राज्यसभा उम्मीदवारों पर चर्चा चल रही थी तब एकाएक लक्ष्मीकांत वाजपेयी का नाम भी सुर्खियों में आया था। नवभारत टाइम्स अखबार में एक खबर की हेडिंग थी-खत्म हो सकता है लक्ष्मीकांत वाजपेयी का वनवास। लेकिन लक्ष्मीकांत वाजपेयी को वनवास क्यों दिया गया? साल 2014 में जब यूपी से बीजेपी ने 71 सीटें हासिल की थीं तब अमित शाह यूपी के पार्टी के यूपी प्रभारी थे और लक्ष्मीकांत वाजपेयी यूपी बीजेपी अध्यक्ष। बीजेपी पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई थी और इसमें यूपी से मिली सीटों का बहुत बड़ा योगदान था। इस जबरदस्त चुनावी जीत का सेहरा अमित शाह के सिर बंधा। वो भारत की आधुनिक राजनीति के चाणक्य कहे जाने लगे। लेकिन लक्ष्मीकांत वाजपेयी का क्या हुआ? आखिर यूपी से इतनी सीटें आई थीं तो प्रदेश अध्यक्ष को भी उस जीत में शेयर दिया जाना चाहिए था. हुआ इसका उल्टा।

2014 में जब बीजेपी ने यूपी में कामयाबी हासिल की थी तब लक्ष्मीकांत वाजपेयी विधायक थे. पहले वो राज्य के अध्यक्ष पद से हटाए गए. फिर जब यूपी में बीजेपी 300 से ऊपर सीट लेकर आई तो अप्रत्याशित रूप से लक्ष्मीकांत वाजपेयी चुनाव हार गए। वो मेरठ से चार बार विधायक चुने गए थे। ऐसी प्रचंड जीत के बीच उनकी हार अप्रत्याशित थी। शंका पैदा करने वाली. एक ऐसा नेता चुनाव हार गया जो अखिलेश यादव की सपा सरकार के खिलाफ कमल का मुख्य चेहरा था। वर्तमान यूपी बीजेपी हाईप्रोफाइल नेताओं से बिल्कुल अलग उनसे संपर्क साधना बिल्कुल आसान था।

और 2017 की चुनावी हार के बाद से लक्ष्मीकांत वाजपेयी पूरे राजनीतिक परिदृश्य से ही गायब हो गए हैं। इस समय यूपी के मंत्रिमंडल में जितने भी नेता हैं वो लक्ष्मीकांत के अनुभव के आगे बौने हैं। बाजपेई ने राजनीति की शुरुआत इंदिरा गांधी के खिलाफ इमरजेंसी के समय की थी। 80 के दशक की शुरुआत में वो मेरठ बीजेपी के अध्यक्ष बनाए गए थे। 84 से 86 तक वो यूपी बीजेपी युवा मोर्चा के अध्यक्ष थे। लंबे समय तक विधायक रहने के दौरान विधानसभा में बहसों के दौरान उनकी उपस्थिति कमाल की थी। यूपी विधानसभा की कई कमेटियों का वो हिस्सा रह चुके हैं। यूपी की राजनीति को गंभीरता से देखने वाले उनकी सादगी के कायल हैं। प्रदेश में ‘स्कूटर छाप’ राजनीति की वो शायद आखिरी बेल हैं।

लक्ष्मीकांत वाजपेयी को दो बार यूपी बीजेपी का अध्यक्ष चुना गया। उनके सीएम रहते पार्टी ने पूरे प्रदेश के नगर निगम चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की थी। उन्होंने पार्टी को कन्नौज के नगर निगम चुनाव में भी पार्टी को जीत दिलाई थी जो समाजवादी पार्टी का गढ़ है। उस समय बीजेपी के नेतृत्व के एक बड़े धड़े का मानना था कि अगर 2014 के चुनाव में वाजपेयी को खुला हाथ दिया गया तो पार्टी बड़ी जीत दर्ज करेगी। लेकिन लेकिन चुनाव से कुछ समय पहले यूपी का प्रभार अमित शाह को दे दिया गया. इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनाव जीतने की उनकी स्किल्स ने ही पार्टी को 71 सीटें दिलवाईं लेकिन बाजपेई के योगदान को पार्टी कैसे भुला सकती है?

और फिर विधानसभा चुनावों में जीत के बाद एक ऐसे नेता को राज्य की कमान सौंपी गई जिसे लखनऊ की राजनीति का उतना अंदाजा नहीं था। दिलचस्प बात देखिए सीएम और डिप्टी सीएम चुने गए तीनों ही नेताओं से बाजपेई किसी भी मामले में ज्यादा काबिल थे, लेकिन वो चुनाव हार गए! चुनाव हारना तो कोई बड़ी बात नहीं। हमने पहले भी देखा है कि कैसे चुनाव हारे हुए लोगों को मंत्री पद दिए गए हैं। वास्तविक कारण क्या है ये तो बीजेपी नेतृत्व ही जानता होगा लेकिन यूपी बीजेपी में बाजपई को किनारे किया जाना राज्य की जनता का नुकसान है। मेरी जानकारी के मुताबिक वो शायद आखिरी विधायक हैं जो पद पर रहने के दौरान भी स्कूटर पर घूमते देखे जा सकते थे। ऐसी ही सादगी इलाहाबाद के विधायक रहे अनुग्रह नारायण सिंह के बारे में भी मशहूर है लेकिन वो समाजवादी पृष्ठभूमि के हैं।